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ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने अमेरिका को लेकर एक बड़ी बात कही थी. उन्होंने कहा था कि अमेरिका चाहे तो किसी भी देश की सत्ता पलट सकता है, खासकर मुस्लिम देशों की. यह कोई पहला मौका नहीं है, जब अमेरिका को इस तरह खरी-खोटी सुननी पड़ी है. अमेरिका के बारे में कहा जाता है कि भले ही दुनिया के किसी भी कोने में दो मुल्कों के बीच विवाद हो, वो हमेशा ‘पीसमेकर’ बनकर बीच में कूदने को तैयार रहता है.
लेकिन समझने वाली बात ये है कि अमेरिका को आखिर इतनी ताकत कहां से मिली कि वो चाहे तेल की लड़ाई हो, सरहदों की जंग हो, ट्रेड वॉर हो, हथियारों की होड़ हो या फिर किसी मुल्क का अंदरूनी मामला, अमेरिका हर जगह दखल देता दिख जाता है. अमेरिका के इसी ‘वर्चस्व’ के खेल को समझने के लिए हमें इतिहास के पन्ने पलटने पड़ेंगे. चलना होगा साल 1492 में, जहां से इस कहानी की शुरुआत हुई…
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तारीख 3 अगस्त 1492. इटली का 41 साल का नौजवान क्रिस्टोफर कोलंबस तीन जहाजों के बेड़े के साथ सफर पर निकला. मकसद था भारत की खोज. लेकिन ढूंढ निकाला अमेरिका. वो अमेरिका को ही भारत समझ बैठा. इस तरह अमेरिका के स्थानीय लोगों को उसने नाम दिया रेड इंडियंस. ये रेड इंडियंस अमेरिका के स्थानीय आदिवासी थे, जो आज तक अमेरिका के मूल निवासी कहलाते हैं.
इस बात से बेखबर कि उसने भारत नहीं बल्कि अमेरिका ढूंढ निकाला है, कोलंबस यूरोप लौट गया. यूरोप में भारत की खोज की खबर आग की तरह फैल गई. कोलंबस मरते दम तक नहीं जान पाया कि उसने एक ऐसा देश ढूंढ निकाला है, जो भविष्य में सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरने वाला था.
अमेरिका का कॉलोनाइजेशन
ये वो वक्त था, जब दुनियाभर में स्पेन, ब्रिटेन और फ्रांस का दबदबा था. धीरे-धीरे यूरोपियन्स अमेरिका पहुंचने लगे थे. सबसे पहले स्पेन ने अमेरिका में अपनी कॉलोनी बसाई. 16वीं सदी की शुरुआत में ब्रिटेन भी अमेरिका पहुंच गया और देखते ही देखते वहां 13 कॉलोनी बसा लीं. अमेरिका को हथियाने की इस होड़ में फ्रांस भी शामिल हो गया.
साल 1700 तक आते-आते उस समय की इन तीन ताकतों ने अमेरिका के अलग-अलग हिस्सों पर कब्जा कर लिया. इस तरह यूरोप की मिली-जुली आबादी अमेरिका जा बसी.
इनमें सबसे ताकतवर था ब्रिटेन, जो लगातार दमनकारी कानून अमेरिका पर थोपे जा रहा था. वो चाहता था कि अमेरिकी कारोबार उसके हिसाब से हो. लेकिन ब्रिटेन की यही हरकतें अमेरिका में क्रांति ले आईं. वहां आजादी की जंग शुरू हुई और आखिरकार कई दशकों की लड़ाई के बाद 1783 में अमेरिका आजाद हो गया. 1787 में अमेरिका का संविधान बना और 1789 में लागू हो गया. उसी साल 30 अप्रैल को जॉर्ज वॉशिंगटन अमेरिका के पहले राष्ट्रपति बने. चार जुलाई 1776 को आजादी के घोषणा पत्र में अमेरिका को संयुक्त राज्य अमेरिका के तौर पर अपना आधिकारिक नाम मिला.
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विस्तारवादी अमेरिका
आजादी के बाद अमेरिका ने ठीक वही किया, जो अब तक उसके साथ होता आ रहा था. उसने अपनी सीमाओं का विस्तार करना शुरू कर दिया. शुरुआत पश्चिमी सीमाओं से हुई. 1803 तक अमेरिका ने 1.5 करोड़ डॉलर में फ्रांस से लुइसियाना खरीद लिया. इससे अमेरिका का कुल क्षेत्रफल तीन गुना तक बढ़ गया.
अब अमेरिका का मेक्सिको के साथ युद्ध शुरू हुआ. 1848 में अमेरिका ने मेक्सिको को हराकर उस पर कब्जा कर लिया. मेक्सिको से कैलिफोर्निया और टेक्सास छीन लिए गए.
अमेरिका धीरे-धीरे ताकतवर होता जा रहा था. यही वजह रही कि कई छोटे-छोटे प्रांतों ने अमेरिका के साथ जुड़ना पसंद किया. इनमें इलिनोइस, ओहायो और फ्लोरिडा जैसे नाम शामिल थे. जो प्रांत अमेरिका के साथ जुड़ना पसंद नहीं करते थे, वहां वो अपनी सेना भेजकर उस पर कब्जा कर लेता था. इसका उदाहरण कैलिफोर्निया नरसंहार है, जहां अमेरिकी सरकार के इशारे पर हजारों लोगों को मार डाला गया. वजह सिर्फ इतनी थी कि उन्होंने अमेरिका के आगे घुटने नहीं टेके थे.
अमेरिका ने 1867 में रूस से 72 लाख डॉलर में अलास्का को भी खरीद लिया. उसके बाद किंगडम ऑफ हवाई, प्यूर्टो रिको और गुआम पर कब्जा कर लिया. आगे चलकर उसने स्पेन को दो करोड़ डॉलर देकर फिलीपींस खरीद लिया. लेकिन 1946 में फिलीपींस को अमेरिका से आजादी मिल गई. ये अमेरिका की आक्रामक विस्तारवादी नीति ही थी कि 13 राज्यों वाला मुल्क अब 50 राज्यों में तब्दील हो चुका था.
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वर्ल्ड वॉर कैसे बना गोल्डन चांस
20वीं सदी अपने साथ क्रांतियां, भीषण युद्ध और महामारी लेकर आई. दुनिया के कई मुल्क गृहयुद्ध से जूझ रहे थे तो कुछ की पड़ोसियों से तनातनी जारी थी. यही तनातनी पहले विश्व युद्ध का कारण बनी. 1914 में ऑस्ट्रिया-हंगरी जंग वर्ल्ड वॉर में तब्दील हो गई. इस युद्ध के तीन साल बाद अमेरिका भी इस जंग में कूद पड़ा. एक साल के भीतर ही जर्मनी ने हथियार डाल दिए और इस तरह यह विश्व युद्ध खत्म हुआ.
लेकिन ये युद्ध जहां एक तरफ यूरोप के लिए बर्बादी लेकर आया, वहीं इससे अमेरिका के सुपर पावर बनने का सफर शुरू हुआ. दरअसल पहले विश्वयुद्ध में यूरोप की ज्यादातर कंपनियां बंद हो गईं. यूरोप की अर्थव्यवस्था लगभग ठप हो गई. यूरोप बर्बाद हो रहा था, लेकिन यही बर्बादी अमेरिका के लिए गोल्डन चांस लेकर आई. अमेरिका ने उन सभी मार्केट्स पर दबदबा बनाना शुरू कर दिया, जहां पहले यूरोप की तूती बोला करती थी. इससे अमेरिका की अर्थव्यवस्था मजबूत नहीं बल्कि बहुत मजबूत हुई. इसका गवाह बना अमेरिका का शेयर मार्केट, जो लगातार 44 महीने तक बुलंदियां छूता रहा.
अमेरिका आगे बढ़ रहा था तो एक बार फिर दुनिया विश्व युद्ध की ओर बढ़ रही थी. दूसरे विश्व युद्ध में अमेरिका ने उस वक्त पूरी दुनिया को अपनी ताकत दिखा दी, जब जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु हमला हुआ.
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फिर डॉलर बना हथियार…
दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने से पहले ही दुनिया के तमाम बड़े देशों की अर्थव्यवस्था तबाह होने लगी थी. ऐसे में अमेरिका ने अपने उस हथियार का इस्तेमाल किया, जिसे दुनिया डॉलर कहती है. पहले दुनिया के मुल्क कारोबार करने के लिए करेंसी के बजाय गोल्ड पर भरोसा करते थे.
वैश्विक आर्थिक संकट के बीच अमेरिका के न्यू हैम्पशायर शहर में 1944 में 44 देशों का सम्मेलन हुआ. इस सम्मेलन में दो बड़े फैसले हुए. पहला ब्रेटन वुड्स समझौता. दूसरा वर्ल्ड बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का बनना. लेकिन इन फैसलों में सबसे अहम ब्रेटन वुड्स समझौता था, जिसके तहत डॉलर को ग्लोबल करेंसी के तौर पर मान्यता दी गई.
समझौते से पहले दुनिया के तमाम देश गोल्ड को मानक मानते थे. सरकारें अपनी करेंसी सोने की डिमांड और कीमत के आधार पर तय करती थीं. लेकिन ब्रेटन समझौते के तहत तय हुआ कि अब से अमेरिकी डॉलर ही सभी करेंसीज का एक्सचेंज रेट तय करेगा. डॉलर इसलिए क्योंकि उस समय अमेरिका के पास सबसे ज्यादा सोना था. आज डॉलर दुनिया की सबसे ताकतवर करेंसी है. दुनियाभर में 90 फीसदी कारोबार डॉलर में ही होता है. 40 फीसदी कर्ज भी डॉलर में ही दिए जाते हैं.
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गिरती संभलती अमेरिकी अर्थव्यवस्था
अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. 2022 में उसकी जीडीपी 25 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा की रही थी. इसका दूसरा मतलब ये है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में अमेरिका की हिस्सेदारी करीब 24 फीसदी है. लेकिन ऐसा नहीं है कि ये सब कुछ समय या कुछ सालों में ही हो गया.
दुनिया के बाकी मुल्कों की तरह ही कभी अमेरिका की अर्थव्यवस्था भी खेती पर निर्भर थी. अमेरिका पर जब ब्रिटेन का राज था तब उसकी अर्थव्यवस्था बढ़ना शुरू हुई. ब्रिटिशर्स ने यहां पर फैक्ट्रियां खड़ी कीं और इस तरह से अमेरिका में बना सामान दुनिया के बाकी कोनों में जाना शुरू हुआ. इसका एक नतीजा ये भी हुआ कि अमेरिका में शहरीकरण बढ़ने लगा. 1860 तक अमेरिका की ग्रामीण आबादी घटकर 50 फीसदी से भी कम हो गई.
19वीं सदी से ही अमेरिका में कारखाने और कंपनियां खुलने लगीं. 1920 आते-आते अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया. हालांकि, 1930 में महामंदी आ गई और दुनियाभर पर इसका असर दिखा. ऐसे में अमेरिकी सरकार ने खुद खर्चा किया और टैक्स में कटौती कर दी ताकि लोग ज्यादा से ज्यादा खर्च कर सकें.
दूसरे विश्व युद्ध के समय अमेरिका ने अपनी जीडीपी का 40 फीसदी सिर्फ रक्षा क्षेत्र पर लगाया. 1946 से 1973 के बीच अमेरिका की अर्थव्यवस्था हर साल करीब 4 फीसदी की दर से बढ़ी.
हालांकि, 21वीं सदी अमेरिका के लिए बहुत खास नहीं रही. सदी की शुरुआत ही मंदी से हुई. बेरोजगारी भी बढ़ी. लेकिन 2008 की मंदी ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को अच्छी-खासी चोट पहुंचाई. नतीजा ये हुआ कि 2009 में अमेरिका की जीडीपी में गिरावट आ गई. चार दशकों में सिर्फ दो बार ही ऐसा हुआ है जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था में गिरावट आई. पहली बार 2009 में और फिर 2020 में.
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अमेरिका बोले तो मनीलैंड
क्या आपने कभी सोचा है कि दुनियाभर के कारोबारी कारोबार करने अमेरिका ही क्यों जाते हैं? या दुनिया की हर दूसरी बड़ी कंपनी अमेरिकी ही क्यों है? इसका जवाब है कि अमेरिकी सरकार निजी कारोबारियों को अपना कारोबार खड़ा करने की यहां बेइंतहा आजादी देता है.
यही वजह है कि अमेरिका में तीन करोड़ से ज्यादा स्मॉल इंडस्ट्रीज हैं. दुनिया की दो हजार सबसे ताकतवर कंपनियों में से करीब 30 फीसदी अमेरिका में हैं.
2022 की फोर्ब्स लिस्ट में 2000 कंपनियों में से 590 अमेरिकी कंपनियां थीं. फोर्ब्स की इस लिस्ट की टॉप-20 कंपनियों में 11 अमेरिकी थीं, जिनमें पहले पायदान पर अमेरिका की बर्कशायर हैथवे कंपनी रही. फोर्ब्स कंपनियों की सेल्स, प्रॉफिट, संपत्तियां और मार्केट वैल्यू के आधार रैंकिंग तय करती है.
कंपनियों के अलावा दुनिया के सबसे ज्यादा अरबपति भी अमेरिकी ही हैं. फोर्ब्स की लिस्ट में 2022 में 735 अरबपति अमेरिकी थे. इनके पास 4.7 ट्रिलियन डॉलर की नेटवर्थ थी. इस समय भी दुनिया के 10 सबसे रईस लोगों में सात अमेरिकी हैं. टेस्ला और स्पेसएक्स के फाउंडर एलन मस्क दुनिया के दूसरे सबसे रईस हैं, जिनके पास 188 अरब डॉलर से ज्यादा की नेटवर्थ है.
टैलेंट का कद्रदान अमेरिका
दुनिया के सबसे सफल कारोबारियों का इतिहास खंगालेंगे तो पता चलेगा कि हर दस में से सात कारोबारी मूल रूप से अमेरिकी नागरिक रहे हैं. जर्मनी का एक शख्स अमेरिका पहुंचता है और वहां मिले मौकों को भुनाते हुए शोहरत कमाता है और दुनिया उसे अल्बर्ट आइंस्टीन के नाम से जानती है. दक्षिण अफ्रीका का एक कारोबारी कारोबार करने अमेरिका जाता है और टेस्ला जैसी कंपनी खड़ी कर देता है. एलन मस्क को द एलेन मस्क बनाने में अमेरिका की एक बड़ी भूमिका है. कहा जाए तो एलन मस्क जैसे कारोबारी बनाने की क्षमता अमेरिका ही रखता है. अमेरिका टैलेंट को वो मौके देते है, जो शायद दुनिया का कोई और देश नहीं दे सकता है.
यही वजह है कि अमेरिका आज टेक्नोलॉजी के मामले में दुनिया के किसी भी देश से बहुत आगे है. दुनिया की लगभग हर बड़ी कंपनी का हेडक्वार्टर अमेरिका में ही है. सबसे बड़ी स्पेस एजेंसी नासा भी अमेरिका में ही है.
सत्या नडेला, सुंदर पिचई और इंद्रा नूयी जैसे भारतीय आज अमेरिकी कंपनियों में शीर्ष पदों पर हैं. अल्बर्ट आइंस्टीन जर्मनी के थे लेकिन अमेरिका पहुंचने के बाद ही पूरी दुनिया में उन्हें पहचान मिली. एलन मस्क दक्षिण अफ्रीकी हैं लेकिन अमेरिका जाने के बाद ही उन्हें लोकप्रियता मिली. कमला हैरिस ने अमेरिका की उपराष्ट्रपति पद तक पहुंचकर इतिहास ही रच दिया.
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अमेरिकी सेना: द हल्क
अमेरिका के पास दुनिया की सबसे बड़ी सेना है. अमेरिकी रक्षा विभाग की रिपोर्ट बताती है कि उसकी सेना में कुल 21.22 लाख से ज्यादा जवान हैं, जिनमें से 13.28 लाख एक्टिव हैं, जबकि 7.94 लाख रिजर्व है.
अमेरिका की सेना में 9.98 लाख जवान हैं. इनमें रिजर्व और नेशनल गार्ड के जवानों की संख्या शामिल है. वहीं, नेवी में 4 लाख से ज्यादा, मरीन कॉर्प्स में 2.10 लाख और एयरफोर्स में 5 लाख से ज्यादा जवान हैं.
अमेरिका अपनी सैन्य ताकत पर 800 अरब डॉलर यानी 66 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च करता है. ये दुनिया में सबसे ज्यादा है. जबकि, भारत का रक्षा बजट 5 लाख करोड़ रुपये के आसपास है. यानी, भारत से 13 गुना ज्यादा अमेरिका का बजट है.
अमेरिकी सैनिक दुनियाभर में हैं. अमेरिकी रक्षा विभाग का दावा है कि दुनिया के 160 देशों में अमेरिकी सैनिक तैनात हैं.
अमेरिका की ब्राउन यूनिवर्सिटी की ‘कॉस्ट ऑफ वॉर’ रिपोर्ट बताती है कि 9/11 के हमले के बाद से अगस्त 2021 तक विदेशी धरती पर अमेरिका अपने सात हजार से ज्यादा जवानों को खो चुका है. इसमें उसने 8 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा खर्च भी किए हैं.
अमेरिका के हथियार और रक्षा उपकरण भी दुनियाभर में बहुत बिकते हैं. अमेरिकी सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक, 2022 में उसने 205 अरब डॉलर के हथियार और रक्षा उपकरण बेचे थे. ये आंकड़ा 2021 की तुलना में करीब 50 फीसदी ज्यादा था.
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आर्थिक प्रतिबंधः अमेरिका का ब्रह्मास्त्र
किसी देश की अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाने के लिए उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाना सबसे आसान रास्ता है. अमेरिका समय-समय पर इस ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल करता आया है. यूं तो आर्थिक प्रतिबंध कोई भी देश किसी भी देश पर लगा सकता है. लेकिन अमेरिका के लगाए आर्थिक प्रतिबंधों की गूंज देर तक रहती है.
अमेरिकी सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक, इस समय भी दुनिया के 23 मुल्कों पर अमेरिका ने आर्थिक प्रतिबंध लगा रखे हैं. सबसे ताकतवर आर्थिक प्रतिबंधों में से एक है- स्विफ्ट बैन. अमेरिका ने पिछले साल रूस को इस सिस्टम से बाहर कर दिया था. स्विफ्ट (SWIFT) एक तरह की मैसेंजिंग सर्विस है. 200 देशों में 11 हजार से ज्यादा संस्थाएं इसका इस्तेमाल करती हैं. ये इसलिए सबसे ताकतवर है क्योंकि विदेशी बैंक इसी के जरिए अपना कारोबार करते हैं.
इसके अलावा, अमेरिका चाहे तो किसी भी देश को डॉलर में कारोबार करने से भी रोक सकता है. इसका असर सिर्फ उस देश पर ही नहीं पड़ता है, बल्कि उसके साथ कारोबार करने वाले देशों पर भी पड़ता है. क्योंकि प्रतिबंध लगे देश से डॉलर में कारोबार करने पर अमेरिका उस देश पर जुर्माना लगा सकता है.
लेकिन सवाल उठता है कि अमेरिका की ओर से लगाए गए प्रतिबंधों को बाकी के देश फॉलो क्यों करते हैं? इसका जवाब है कि दुनिया के ज्यादातर मुल्क अमेरिका पर काफी हद तक निर्भर हैं.
इसकी चार वजहें हैं. पहली- दुनिया के ज्यादातर देश अमेरिका के साथ कारोबार करते हैं. दूसरी वजह है- तेल, क्योंकि सऊदी अरब, कुवैत और यूएई तीनों ही अमेरिका के खासमखास हैं. यही तीन देश सबसे ज्यादा तेल बेचते हैं. इन तीनों को ही अमेरिका का संरक्षण मिला हुआ है. अगर कोई अमेरिका से पंगा लेता है तो वो इन देशों को तेल बेचने से रोक सकता है.
तीसरी वजह है- वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ. इन दोनों संगठनों पर अमेरिका का दबदबा है और दुनिया के ज्यादातर देशों को कर्ज भी वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ से ही मिलता है. चौथी वजह है- नाटो, जिसके जरिए अमेरिका ने यूरोपीय देशों में अपनी सेना तैनात कर दी हैं. एक तरह से नाटो के जरिए अमेरिका उन देशों को सुरक्षा भी दे रहा है. यही वजह है कि अमेरिका के प्रतिबंधों को दुनिया के बाकी देशों के लिए मानना मजबूरी की तरह ही हो जाता है.
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अमेरिका का साम-दाम-दंड-भेद का पैंतरा
प्रथम विश्वयुद्ध के खत्म होने के बाद सोवियत संघ की स्थापना हुई. यहीं से शुरू हुआ कोल्ड वॉर, जो एक तरह से पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच आदर्शों की जंग थी. इस बीच पूरी दुनिया धीरे-धीरे दो हिस्सों में बंटती गई. एक तरफ अमेरिका था तो दूसरी तरफ सोवियत संघ.
अमेरिका ने सोवियत संघ में शामिल देशों की सरकारों के तख्तापलट का काम शुरू कर दिया. इसके लिए अमेरिका ने साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाई. कहीं विपक्षी दलों का समर्थन करके, तो कहीं आतंकी गुटों की फंडिंग तक कर उसने उन देशों में बगावत करवानी शुरू कर दी. उस पर कुछ देशों के राष्ट्रप्रमुखों का कत्ल करवा कर वहां अराजकता फैलाने का भी आरोप लगा.
कोल्ड वॉर के दौरान अमेरिका ने अपनी मिलिट्री पर बेहिसाब खर्च किया. अमेरिका ने बोलीविया, अफगानिस्तान, चिली, अर्जेंटीना, ईरान, कॉन्गो और ब्राजील जैसे देशों के आंतरिक मामलों में दखलअंदाजी की. एक तरफ वह मिडिल ईस्ट में डेमोक्रेसी के नाम पर युद्धों को जस्टिफाई करता रहा. दूसरी तरफ लैटिन अमेरिका में तानाशाहों की मदद से लोकतांत्रिक सरकारों को उखाड़ फेंकता रहा.
कोल्ड वॉर 1990 तक चला. इसके बाद 1991 में सोवियत संघ बिखरा और पूरी दुनिया में सिर्फ एक ही सुपरपावर बचा, जो था अमेरिका. गुलामी की जंजीरों से सुपरपावर बनने के ओहदे तक पहुंचे अमेरिका ने फिर पीछे पलटकर नहीं देखा.
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आज के दौर में चीन और रूस जैसे देश बेशक अमेरिका के लिए चुनौती बने हुए हैं. लेकिन सुपरपावर बनने की होड़ में वो अमेरिका के आगे कहीं नहीं टिकते. अमेरिका के लगभग 500 सालों के इतिहास में आज वह जिस मुकाम पर है, उसे वहां से हटाना टेढ़ी खीर होगा. 193 देशों के अस्तित्व के बीच दुनिया की अगुवाई करना दिखाता है कि अमेरिका अभी भी दुनिया का नक्शा बदलने का माद्दा रखता है.
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Story: Ritu Tomar/ Priyank Dwivedi
Graphics: Rahul Gupta
Cover Image: Vani Gupta
Photos: Getty Images, AFP
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